हिंदी कहानी- आखिरी चिट्ठी

'आपकी कलम से' स्तम्भ के इस अंक में प्रस्तुत है समकालीन साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर रामनगीना मौर्य की हिंदी कहानी- आखिरी चिट्ठी

हिंदी कहानी- आखिरी चिट्ठी

कुछ जरूरी कार्यवश जन्म-तिथि प्रमाण-पत्र की आवश्यकता थी। जिसके लिये आलमारी में वर्षों से सहेज कर रखे, फोल्डर के भीतर मौजूद सभी जरूरी कागज-पत्रों को उलटते-पलटते, हाईस्कूल-सर्टिफिकेट खोजते, उन्हीं कागजों के बीच अचानक एक पुराना लिफाफा भी हाथ लगा। लिफाफे को उलट-पलट कर देखते, उसके पीछे प्रेषक की जगह लिखे महेश, तथा प्रेषित में अपना नाम, पता देखते ही ध्यान आया, अरे...ये तो महेश की भेजी हुई, तेईस-चौबीस बरस पुरानी चिट्ठी है।

इतनी पुरानी चिट्ठी देख मन, मयूर हो उठा। नाॅस्टैल्जिया-भाव रूपी झूले संग पींगे भरते स्मृतियां हिलोरे मारने लगीं। ये चिट्ठियों की खूबी ही है कि लिखने वाला सामने न होते हुए भी, पढ़ते समय बतियाता महसूस होता है। उसके शब्द, उसकी भाषा, हमें उसके अपने आसपास होने का आभास तो कराती ही हैं, उस संग बिताए पलों को स्मृतियों के श्वेत-श्याम कोलाॅज से भी बना कर प्रस्तुत करती हैं।

मुझे याद है...यूनिवर्सिटी से निकलने के बाद, हम दोस्तों के बीच भी काफी वर्षों तक खतो- किताबत, अपनी विशिष्ट भाषा- शैली में चलती रही थी। किसी की लिखी हुई चिट्ठियाँ अब बची ही कितनी हैं? फिर आजकल चिट्ठियायाँ लिखी ही कितनी जाती हैं? हाईस्कूल का सर्टिफिकेट खोजने का काम बीच में ही छोड़ कर उत्सुकतावश इस चिट्ठी को एक बार और पूरम्पूर पढ़ने का मन किया। पढ़ने लगा। इसे पढ़ते ही स्मृति-पटल पर महेश संग बिताये खट्टे-मीठे ढ़ेरों प्रसंग...श्वेत-श्याम-रंगीन कोलाॅज से बन कर परत-दर-परत स्वतः ही उभरने लगे।

महेश से पहली मुलाकात मुझे आज भी अच्छी तरह याद है। हाईस्कूल में एडमिशन के बाद जब मैं पहली बार क्लाॅस में गया तो उस समय मैथ वाले टीचर डोरी लाल जी अलजेब्रा पढ़ा रहे थे। उनसे कक्षा में प्रवेश की अनुमति के उपरान्त जब मैंने क्लाॅस में नजर दौड़ाई तो किसी भी बेंच पर बैठने की जगह नहीं दिखी। शायद पीछे बैठने की जगह मिल जाये, यही सोच कर क्लाॅस में सबसे पीछे चला गया। परन्तु वहां भी कोई छात्र बेंच से खिसकते, मुझे बैठने की जगह देने को तैयार नहीं दिखा।

‘‘अरे! मेरे लाल, तुम्हें अभी बैठने की जगह ही नहीं मिली?’’ सीट के लिए मुझे इधर-उधर झांकते देख मैथ वाले टीचर जोर से दहाड़े। टीचर की इस उक्ति पर कक्षा में उपस्थित छात्रों की हँसी का एक फव्वारा सा छूटा। मैं अत्यन्त अपमानित महसूस करते थोड़ी देर सिर झुकाए यूं ही खड़ा रहा।

‘‘रूपेश! तुम जरा अपनी सीट पर खिसक जाओ, और इसे भी अपने बगल में बिठा लो।’’ मैथ के टीचर ने मेरे सामने की पंक्ति में बेंच पर बैठे एक गोरे से लम्बे-चैड़े लड़के जिसका नाम रूपेश था, से मुझे अपने साथ बिठने के लिए कहा। रूपेश ने पीछे पलट कर मेरी ओर देखते, मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा। ‘‘आऽ...ब्बेऽ, बैठ जा।’’ यद्यपि ऐसा उद्बोधन मेरे लिए अप्रत्याशित था, तथापि समय की मांग को देखते, मैं यन्त्रवत उसके बगल जाकर अंड़सते हुए बेंच पर बैठ गया। उस दिन पूरे समय ऐसा महसूस होता रहा जैसे पूरा क्लाॅस मुझे ही घूर रहा है। बेचैनी, घबड़ाहट कुछ ऐसी थी कि मैथ-टीचर ने उतने समय क्या कुछ पढ़ाया, न मुझे समझ में आया, न ठीक से कुछ सुनाई ही दिया।

‘‘जाऽ...ब्बेऽ, पीछे किसी और बेंच पर एडजस्ट करके बैठ जा। यहां एक बेंच पर चार लड़के ही बैठ सकते हैं।’’ क्लाॅस खत्म होते ही रूपेश ने मुझे आदेश दिया। मुझे वहां से उठना पड़ा। जैसा कि अमूमन होता है, एक क्लाॅस खत्म होने और दूसरी क्लाॅस शुरू होने के बीच, टीचर के आने तक पांच-सात मिनट का जो गैप होता है, उसमें लड़के तितर-बितर हो, हो-हल्ला ही करते हैं। वही हुआ।

अगला क्लाॅस बाॅयलोजी का था। जिन लड़कों ने बाॅयलोजी के स्थान पर ड्राइंग ले रखा था, उनके दूसरे क्लाॅस में जाने के कारण पीछे की एक बेंच पर पर्याप्त खाली जगह दिखी। मैं वहीं जाकर बैठ गया। क्लाॅस शुरू होने पर मैंने महसूस किया कि मेरे बगल बैठा लड़का जो शरीर से दुबला-पतला था, बगल झांकने पर उसकी काॅपी देखने पर उसकी हैण्डराइटिंग बहुत बढ़िया दिखी। वो शान्तचित्त हो, बाॅयलोजी के डाॅयग्राम्स बना रहा था। मैं उससे अत्यन्त प्रभावित हो सोचने लगा, काश इससे दोस्ती हो जाती। ये महेश था। चेहरे-मोहरे से साधारण। दरमियाना कद। पढ़ाई-लिखाई में होशियार।

खैर, संजोग अच्छा ही रहा। अगले कुछ दिनों तक हम कक्षा में साथ-साथ ही बैठने लगे। उसकी देखा-देखी मैं भी बाॅयलोजी में अच्छे-अच्छे डाॅयग्राम्स बनाने लगा। हमारे बीच दोस्ती के बीज पनपने, गहराने लगे।

महेश संग क्लाॅस में घटित एक दिलचस्प वाकया साझा करना चाहूँगा। मैथ वाले डोरी लाल सर की क्लाॅस में पीछे वाली बेंच पर हम दोनों एक साथ ही बैठे थे, पर महेश दूसरे छात्रों की शरारतवश, झुट्ठैं जोरदार डाँट खा गया। जबकि पीछे बैठे छात्र अजब-गजब तरीके बूझ-बुझौव्वल खेल रहे थे...‘‘बताओ...तीन अक्षर का मेरा नाम, उल्टा-सीधा एक समान।’’ पर पकड़ा गया बेचारा महेश। उनकी बातों में रस लेते उसे ध्यान ही नहीं रहा कि मैथ वाले सर ने कब उसके माथे के बीचों-बीच निशाना लगाकर चाक फेंकते उससे पूछ लिया।
‘‘महेश तुम्हारा ध्यान किधर है?’’
‘‘जी, ब्लैक-बोर्ड पर।’’
‘‘अच्छा जे बताओ...ए प्लॅस बी का होल-स्क्वाॅयर क्या होगा?’’

मैथ वाले सर के, नासिक्य-स्वर में पूछे गये इस अप्रत्याशित सवाल पर महेश एकदम से अचकचा गया। वह उनके अचानक हुए इस आक्रमण से इस बुरी तरह से घबड़ा गया था कि उसके मुँह से बोल ही नहीं फूट रहे थे। जबकि मुझसे अगर उन्होंने ये सवाल पूछ होता तो मैं अवश्य बता देता। मुझे तो ये फॉर्मूला भली-भाँति रटा हुआ था।
मुझे अभी भी याद है...डोरी लाल सर के इस अप्रत्याशित सवाल पर जब महेश अपने आरी-बगल झांकने लगा तो उन्होंने उस पर फब्तीनुमा तंज कसते कहा था...‘‘आॅऽरट ले लो आॅऽरट...साइन्स नहीं चलने की तुमसे। जब अभी ये हाल है, तो इण्टर में तो झेल जाओगे बच्चू। ये जो तुम्हारे दोस्त लोग हैं न, इनका तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला। पर सोचो तुम्हारा क्या होगा? खुराफात छोड़ो और पढ़ाई में भी ध्यान लगाओ, नहीं तो...समझ लेना फिररर...।’’ मैथ वाले टीचर के हाव-भाव से ऐसा लगा मानों कह रहे हों...‘तुम्हारे ये दोस्त तो कटे पर पेशाब भी नहीं करने वाले।’

अच्छा याद आया...‘‘समझ लेना फिररर...’’ मैथ वाले डोरी लाल सर का ये अच्छा-खासा स्कूल-प्रसिद्ध तकिया-कलाम था। वो ये जुमला लगभग हर उस छात्र से कहते, जो उनके प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे पाता या कोई फाॅर्मूला बताने में लड़बड़ा जाता। वो ये जुमला कहने की रौ में ‘फिर’ शब्द पर खासा जोर देते,...‘फिररर...’ कहने के बाद अल्पविराम देते, आंखें तरेरते, अपनी गर्दन को हल्का टेंढ़ा करते इस अंदाज में कहते कि उनके सामने खड़ा छात्र अन्दर से पूरी तरह हिल जाता। उनके इस हाव-भाव में जो खास सन्देश छुपा होता, उससे हम-सब छात्र भली-भांति वाकिफ थे। अगले दिन हम और किसी विषय में होम-वर्क भले न पूरा कर पायें, पर उनका होम-वर्क जरूर पूरा करके आते थे, नहीं तो अगले दिन क्लाॅस में पूरे पीरियड भर मुर्गा बनना तय था।

वैसे महेश के बारे में एक बात यहाँ और प्रसंगानुकूल है...अब याद आ गयी है तो बताता चलूँ...। महेश पढ़ाई-लिखाई में तो ठीक था, पर वाकपटुता में बेहद कमजोर। एक बार का दिलचस्प वाकया याद आता है। हिन्दी की कक्षा में दोहे, कविताएं सुनाने का दौर चल रहा था। महेश ने सुनाना शुरू किया...‘बृक्ष कबहुँ नहिं फल भखैं, नदी न संचै नीर...’ इसके आगे की पंक्ति वो भूल गया। तभी पीछे से किसी छात्र ने संकेत दिया...‘देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर।’ महेश ने भी जाने इसका क्या अर्थ लगाया, यही पंक्ति आगे जोड़ कर दोहा पूरा किया। तत्पश्चात हिन्दी के अध्यापक ने महेश की कायदे से मजम्मत की।

हाईस्कूल के दिनों में ही मैं महेश के अन्य विशिष्ट गुणों से भी परिचित हुआ। केमिस्ट्री की लैब में प्रैक्टिकल के दौरान, मैंने आजमाया कि मेज पर सामने की शीशियों में रखे द्रव पदार्थ में से कुछ को एक निश्चित मात्रा में परखनली में डालने पर उसका रंग दूधिया हो जाता है। जिसे मैंने अपने साथियों को ये कहते सहर्ष दिखाया कि ‘देखो, मुझे दूध बनाना आता है।’ इस बात से अनभिज्ञ कि मेरे पूरे क्रिया-कलाप पर लैब-असिस्टेंट श्री रामसेवक जी की पैनी नजर लगी हुई थी, अति-उत्साह में मैंने पूरे क्लाॅस को उस प्रक्रिया से अवगत कराया। श्री रामसेवक जी ने मेरी इस हरकत की शिकायत फौरन ही केमिस्ट्री के टीचर, मदन मोहन सर से जाकर की।

आनन-फानन मुझे मदन मोहन सर के कमरे में उपस्थित होने का बुलावा आया। ठण्ड के दिन थे। मोटा ब्लेजर पहने होने के वाबजूद मुझे पसीने छूट रहे थे। ‘जाओ बच्चू, आज हुलिया टैट होगी। दूध और पानी सब निकलेगा।’ बगल से गुजरते एक छात्र ने ठिठोली की। खैर, मदन मोहन सर ने दूध बनाने की प्रक्रिया के बारे में थोड़ी देर पूछ-ताछ के बाद, कुर्सी के बगल पड़ा अपना रूल उठाया और दे दनादन तीन-चार रूल मेरी पीठ पर बरसाए। इस बीच कक्षा के दूसरे छात्र भी मजमा लगाए, कमरे के दरवाजे, खिड़कियों से अन्दर झाँकते रहे। मैं सकते में आ गया, और मार से बचने के लिए पूर्व आजमाया, सौ फीसद सफल तरीका अपनाया। मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगा। मुझे चिल्लाते देख मदन मोहन सर, कमरे से बाहर आ गये। ‘ऐ तुम लोग जाओ यहाँ से। क्या मजमा लगा रखा है?’ उन्होंने दरवाजे, खिड़कियों से झाँक रहे छात्रों को डाँटते वहाँ से भगाया। ‘और तुम, कल अपने बाप को लेकर आना। तब मेरी क्लाॅस में घुस पाओगे। समझे कि नहीं?’ मदन मोहन सर ने मुझे चेतावनी देते, इस हिदायत के साथ कमरे से बाहर जाने को कहा।

इस बार भी मुझे संकट से महेश ने ही उबारा। उसने अगले दिन, अपने मुहल्ले के किसी परिचित को मेरा बड़ा भाई बनाते मदन मोहन सर के सामने हाजिर किया। चूँकि मदन मोहन सर को मुझमें कोई रूचि नहीं थी, सो उन्होंने ज्यादा पूछताछ करने की जरूरत नहीं समझी। फिर जाड़ों की छुट्टियों के बाद दुबारा स्कूल खुलने पर मदन मोहन सर सब कुछ भूल-भाल गये, और ये किस्सा यूँ सौहार्दपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ।

हाईस्कूल के इग्जाम में भी महेश के कुछ एहसान मुझ पर हैं। चिट्ठी की शुरूआत में ही...‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु’...संबोधन से याद आया। संस्कृत वाले पेपर के दिन, जैसा कि हम सब की आदत थी, काॅपी-पर्चा सिर माथे लगाने की कवायद के बाद, पर्चे में प्रश्नों की अनवरत शृंखला देख कर मेरी आँखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा। कुछ सुभाषितानि के अर्थ मेरी समझ से परे थे...‘‘मातृवत परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत’...‘शैले-शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे-गजे’...‘अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्’’। इनके अर्थ मैंने, उस दौर में, हम छात्रों के बीच उँगलियों और नेत्रों की सर्वाधिक प्रचलित, पर अचूक सांकेतिक भाषा, जिसमें कि हम-सब-जन सिद्धहस्त थे, मैंने मूत्रालय जाने के बहाने, संकेत से महेश को परीक्षा-कक्ष से बाहर बुला कर पूछे थे। तब कहीं जाकर संस्कृत के पेपर में मेरा भी बेड़ा पार हो सका था। हालाँकि बदले में उसके बाद, वो मुझसे महीनों तक मेन-गेट से हट कर, स्कूल की बाउण्ड्री से थोड़ा सट कर, खड़े होने वाले ठेले से, फिरी में ही मटर के छोले खाता रहा...वो भी डबल-डबल दोने के साथ। भुक्कखड़ कहीं का।

चूँकि महेश रेखाचित्र भी बहुत बढ़िया बना लेता था। ऐसे में जब विज्ञान विषय में कोई चित्र आदि बनाना होता, तो हम महेश की ही मदद लेते। डेवी का निरापद लैम्प, कैलीपर्स, स्कू्रगेज, सूक्ष्मदर्शी, आदि के चित्र तो वो ऐसे बनाता, जैसे उनके जीवन्त फोटुएं खींच कर हू-ब-हू किसी फे्रम में फिट कर दिये गये हों। ऐसे कलात्मक चित्रकारी के पीछे के वजह पूछने पर एक बार उसने ही बताया था कि उसे तो मिडिल-क्लाॅस में कृषि विषय में कृषि-यन्त्रों में फावड़ा, गैंती, खुर्पी, हैरो और चित्रकला में साड़ी का किनारा बनाने और आॅस्टवाॅल्ड-चक्र में रंग भरने में महारत हासिल थी। हांॅ, याद आया...स्कूल में प्रेयर के दौरान यदा-कदा दो मिनट का मौन धारण करने का अवसर आने पर सबसे ज्यादा हँसी उसे ही आती थी। वो था ही इतना हँस-मुख।

ऐसी ही अनेकानेक घटनाओं के बाद महेश संग हमारी दोस्ती का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ, तो प्रगाढ़ होता गया। काॅमिक्स, कहानियाँ, जासूसी उपन्यास आदि पढ़ने का चस्का भी मुझे महेश की सोहबत के कारण ही लगा। काॅलेज से चन्द कदमों की दूरी पर स्थित, उस समय नयी-नयी खुली दुकान, ‘भारत बुक्स एण्ड न्यूज-पेपर एजेन्सी’, जहाँ हमें स्टेशनरी से लेकर अखबार- किताबें- पत्र- पत्रिकाएँ, आदि सभी कुछ पढ़ने-देखने को मिल जातीं थीं। वहाँ हमारा जाने का मुख्य उद्देश्य रहता था, रेसिस के समय में पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना या उनके रंगीन पन्ने यूँ ही फितरतन या शायद इरादतन उलटना-पलटना। यद्यपि उन दिनों कर्नल रंजीत, एस. सी. बेदी आदि हमारे प्रिय लेखक थे, जिनके उपन्यास हम बड़ी ही तल्लीनता से पढ़ते थे।

दुकान के मालिक, जिनके सिर के बाल झक्क-सुफैद थे, लगभग हर वक्त ही पुराने अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं के मुख-पृष्ठ को, पटरी लगा कर फाड़ने में व्यस्त रहते थे। उनकी नजर बचाकर, कितने ही तरीकों से कितनी ही बार हमने जाने कितने ही काॅमिक्स, जासूसी सिरीज के पाॅकेट-बुक्स, उपन्यास वगैरह पढ़ डाले होंगे। एकाध गायब भी कर दिये होंगे, जिनके नाम हमें खुद भी याद नहीं।

यहांॅ एक बात और भी गौर-तलब है...अब याद आ गयी है तो बताता चलूँ। दुकान के मालिक अपनी दुकान में कुछ पत्र्ािकाएं और कुछ किताबें, रंगीन पन्नियों में लपेट कर, अन्दर वाली रैक पर करीने से इस तरह खास कोंण से सजा कर रखते थे कि एक बारगी सामने से देखने वाला उनके शीर्षक पूरम्पूर देख ही न पाये। हम भी उनके शीर्षक लगभग आधा-तिहा ही पढ़ पाते थे...जैसे- कली...जवानी...मुद्राएं...युवक...कच्ची...शास्त्र्ा...तरीके...हसीन...आसन...प्रश्न...युवतियाँ...इत्यादि।

हमें याद है...उन दिनों उन किताबों के पूरे शीर्षक जानने की उत्कण्ठा हमारे मन में काफी समय तक आलोड़न-विलोड़न होती रही थी। बावजूद उनके आधे शीर्षक ही देख या जान पाने के, हममें उन्हें पढ़ने की जबरदस्त इच्छा बलवती रहती। पर क्या करते...वो किताबें हमारी पहुँच से परे थीं। एक बार तो हम लोगों ने दुकान के मालिक की अनुपस्थिति में, दुकान में बैठे लड़के से उन किताबों के बारे में जानने की इच्छा भी जाहिर की, तो उसने हमें अजीब तरीके से धूरते....‘‘चलो निकलो...अब फूटो यहांॅ से, अपना रास्ता नापो। लेना न देना बस्स खाली-मूली टेम खराब करना है तुम लोगों को? ये तुम्हारे मतलब की नहीं है। स्कूल पढ़ने-लिखने आते हो कि अपने माँ-बाप का पइसाऽ डाँड़ करने आते हो? पढ़ना- लिखना ढ़ेला- भर नहीं...चले आते हैं जाने कहाँ से मुँह उठाये?’’ कहते उसने हमारी उम्मीदों पर तुषार-पात कर दिया। भला, उसके इस कदर अलफ होने का कारण उन दिनों हम कैसे जान सकते थे?

उन दिनों के कुछ टीचर्स और उन संग जुड़े दिलचस्प प्रसंगों की याद अभी भी जेहन में ताजा हैं, जिनका जिक्र करना भी जरूरी समझता हूँ। हाईस्कूल में हमारे एक टीचर जो अंग्रेजी पढ़ाते थे, पक्के अंगे्रज थे। गोरा रंग। लम्बा कद। इकहरा बदन। सिर के बाल झक्क सुफैद। आँखों पर ऐनक चढ़ाए। हर दम तन कर चलते थे। उनका नाम तो आज ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा, पर हम सब छात्र उन्हें ‘वोकाबुलरी सर’ के नाम से जानते थे। कहते थे, अगर तुम्हारी ‘वोकाबुलरी’ ठीक है तो ग्रामर की शुद्धता में थोड़ी-बहुत कमी-बेशी होगी, तो भी सामने वाला, तुम्हारे कहे का अंदाजा लगा लेगा। वोकाबुलरी के मामले में हमारे बीच किसी छात्र के मुखार-बिन्द से कभी कोई गलत-सलत अर्थ निकल जाता तो वो हमारी तरफ ऐसे देखते मानो हमें कच्चा ही चबा जायेंगे। आश्चर्य...ये भी कि वो ऐसे नाजुक क्षणों में संस्कृत में दोहराने लगते...‘जावत्त शोभते मूर्खः तावत्त किंचित न भाष्यते।’’ मूर्ख की शोभा तभी तक है, जब-तक कि वो बोले नहीं।

जाहिर है, ऐसे में उनका सारा जोर हम छात्रों की ‘वोकाबुलरी’ ठीक करने में ही रहता। ‘वोकाबुलरी’ की कमजोरी के मामले में वो कोई भी बहानेबाजी सुनने को तैयार नहीं थे। हम लोगों की ‘वोकाबुलरी’ में कोई भी गलती होने पर उनका सजा देने का तरीका भी अलहदा था। सिर के बाल पकड़ कर छात्र का सिर टेबुल पर झुका देते, फिर वो उसकी पीठ पर अपनी कुहनी दे मारते। उनके ऐसे आक्रमण से हम छात्र बिलबिला कर रह जाते। वैसे ये भी उन्हीं का प्रताप था कि उन दिनों कक्षा में लगभग हर छात्र के बस्ते में हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी का संक्षिप्त संस्करण पाया जाता था। 

जब हम इण्टर में पढ़ रहे थे तो उस दौर में पहले दिन...पहले शो में फिल्में देखने का क्रेज तो हमारे सिर चढ़ कर बोलता। फिल्मों के प्रति हमारी खास दीवानगी रहती थी। स्कूल से रेसिस के बाद के क्लाॅसेज छोड़ कर, जाने कितनी ही फिल्में हमनें पहले दिन...पहले शो में ही देखे होंगे। कुछ-कुछ फिल्में तो हमने कई-कई बार देखीं, और कभी-कभी तो सिनेमाहाॅल की दीवाल से कान सटा कर घण्टों, फिल्मों के डाॅयलाॅग और गाने आदि भी सुना करते थे।

फिल्म देखने को लेकर हम दोस्तों के बीच एक अलिखित समझौता सा था। कौन सी फिल्म कब देखनी है, किस शो में किसके साथ, सब एक दिन पहले ही तय हो जाता। कौन-कौन कितना-कितना पैसा मिलाएगा? किसने पिछली बार कम पैसे मिलाए थे, का भी पूरा हिसाब रहता था।

सिनेमा से ही जुड़ा हुआ एक दिलचस्प वाकया याद आता है। हुआ ये कि पिक्चर के टिकट खरीदने के बाद अपनी-अपनी साइकिलें, स्टैण्ड में जमा करने वास्ते हमारे पास पचास पैसे कम पड़ रहे थे। यह जानते हुए कि ‘‘आब गयी, आदर गया, नैनन गया सनेह/ यह तीनों तब ही गये जबकि कहा कछु देह।’’ मजबूरी क्या न कराये। ऐसे गाढ़े समय में पता नहीं कहांॅ से हमारे अन्दर हिम्मत आ गयी। उस दिन हमने एक अभिनव, परन्तु दुर्लभ और धृष्ट प्रयोग किया।
सिनेमा-हाॅल के बाहर की बाउण्ड्री-वाॅल के पीछे वाली दुकानों में ही में एक बूढ़ी औरत, जो चाय-समोसे की दुकान लगाती थी, प्रायः दुकान में बैठी-बैठी ऊंॅघती रहती। हमने हिम्मत करके उसी से कहा...‘‘अम्मा... इस पिक्चर का आज ये आखिरी दिन है, और हमारे लिये इसे देखना बहुत जरूरी है। अगर हम इसे आज नहीं देख पाये तो जाने फिर इसे देखने का मौंका हमें मिलेगा या नहीं, कुछ कह नहीं सकते। हमने टिकट भी ले लिया है, पर साइकिलें जमा करने के लिये हमारे पास पचास पैसे कम पड़ रहे हैं। आप या तो पिक्चर खत्म होने तक हमारी साइकिलें अपनी दुकान के बगल में ही खड़ा करने दें, या हमारी साइकिलें, स्टैण्ड में जमा करने के लिये हमें पचास पैसे उधार दे दें। कल हम आपके पैसे जरूर से जरूर लौटा देंगे, और साथ ही एक-एक चाय-समोसा भी खायेंगे...वो भी नकद।’’

मुझे याद है...उस बूढ़ी औरत ने इस विलक्षण सुझाव पर, हमारी साइकिलें अपनी दुकान के बगल में खड़ा करने की इजाजत देने या पचास पैसे उधार देने के बजाय अपनी भट्ठी में से गरमा-गरम चिमटा निकालकर...‘‘ठाऽड़ रहौ दहिजरौं के नाती...बड़ा सउक चर्रावा है न...तुम्ह सबकाऽ...आखिरी दिन कै सलीमां देखइ बदे...अभ्भैं एक-एक चिमटा तुम्हरेन सबकाऽ पिछवाड़े पर जमाइत हन्न्...होश ठेकाने आऽइ जाये...तनिक नियरे आऽओ तो...आखिरी दिन कै गरमी अभ्भैं निकालित हंन्न्...।’’ कहते उसने हमें कुछ दूर तक खदेड़ ही लिया था। उसके बाद की उसकी बड़बड़ाहट हम ठीक से सुन नहीं सके कि उसने बाद में हमें बकते-झकते क्या कुछ कहा?
ऐसे में हमारे समक्ष गम्भीर धर्म-संकट की स्थिति आ खड़ी हुई। एक तरफ तो हमारे हाथों में सिनेमा के टिकट थे। पिक्चर शुरू होने का टाइम भी हो रहा था। दूसरी तरफ साइकिलें खड़ी करने के लिये हमारी जेबों में पचास पैसे का टोटा अलग से था।
समय बहुत तेजी से भाग रहा था। यकीनन उस समय हमारा दिमाग, मुहल्ले के ऑल टाइम फेवरेट...‘चचा बवाली’ जिनका दिमाग बुलेट ट्रेन के मानिन्द चलता था, जिनके बारे में लोग ये भी कहते थे कि उन पर हमेंशा शनिच्चर सवार रहता है, मानों हरवक्त ‘थर्ड डिग्री सिण्डोम’ की स्थिति में ही रहते हैं। जिनके पास ट्वेण्टी फोर आॅवर, दुनिया के हर समस्या का समाधान मौजूद रहता है। जो माथे पर सलवटें लाते, भकुटियों को तनिक सिकोड़ते, दाहिने हाथ की उंॅगलियों से माथे पर बस्स हल्का रगड़ते ही एक से बढ़ कर एक ब्रिल्लिएण्ट-आइडियाज तड़ से हाजिर-नाजिर कर देते, की तरह ही तेजी से चल रहा था।

चचा बवाली का ध्यान आते ही हमारे दिमाग की बत्ती पुनः एक बार जली। तत्काल एक धड़ाम-धकेल आइडिया दिमाग में आया, जिसे हमने बिना एक भी मिनट गंवाये तुरन्त ही कार्य-रूप में परिणत किया। हमने अपनी-अपनी साइकिलों के पहियों की हवा निकालीं और थोड़ी दूर उसी गली में आगे चल कर जहांॅ हमारे एक पुराने दोस्त के पिता की बिसातखाने की दुकान थी, जिसके ऊपर बोर्ड पर बांयीं तरफ बड़े-बड़े सजावटी अक्षरों में...‘‘उधार प्रेम की कैंची है’’ तथा दांयीं तरफ...‘‘आज नकद कल उधार’’ जैसे जुमले उकेरे हुए थे, के सामने अपनी-अपनी साइकिलें खड़ी करते, दुकान में उस समय बैठे अपने उस दोस्त के पिता को ये कहते कि...‘‘अंकल जी’ हमारी साइकिलें पंक्चर हो गयी हैं, और हमें स्कूल जाने के लिये देरी भी हो रही है। हम अपनी साइकिलें यहीं खड़ी किये जा रहे हैं, शाम को हम ये साइकिलें ले जायेंगे।’’ कहते हमने अपनी साइकिलें वहाँ खड़ी करनी चाहीं।

हमें उनकी बाॅडी-लैंग्वेज से साफ-साफ आभास हुआ कि उन्हें हमारी मंशा पर जरा भी शक नहीं हुआ था। काहे से कि फिल्में देख-देख कर थोड़ी-बहुत एक्टिंग की ए-बी-सी-डी तो हम भी सीख गये थे। बतर्ज...‘पलकों पर अश्कों का जनाजा लिये’... टाइप सिचुएशन पैदा करते, सजल-नयल...कातर स्वर हमने कहा ही इतने गुरू-गम्भीर...देह-भाषा में था कि उन्होंने झट हमारी बात पर यकीन कर लिया।

‘‘ठीक है उधर दुकान के बगल, गलियारे में तुम सब अपनी-अपनी साइकिलें लगा दो। पर ध्यान रहे शाम को ये साइकिलें जल्दी ही ले जाना, क्योंकि उस गलियारे का इस्तेमाल हमारे किरायेदार महाशय ही करते हैं। उन्हें आपत्ति होगी। गलियारे में साइकिलें खड़ी देख कर फौरन ही ओरहन देने चले आयेंगे।’’ कहते उन्होंने हमें अपनी साइकिलें खड़ी करने की सहर्ष, परन्तु सशर्त अनुमति दे दी।

इस तरह अपनी जान में तो गौरी-शंकर प्रयास करते, उस दिन हमनें अपनी साइकिलें ठिकाने लगायीं और आखिरी दिन वाली वो पिक्चर देखी थी। हालांकि, जब हम इतनी सारी कवायदों के बाद सिनेमा-हॅाल में घुसे तो हमें याद है कि...अभी उस पिक्चर की काॅस्ंिटग ही निकली थी।

चंूॅकि ऊपर ‘चचा बवाली’ का जिक्र आ गया है तो उनके बारे में भी इन्ट्रोड्यूस करना उचित समझता हूँ। ‘चचा बवाली’ हमारे मुहल्ले में ही रहते थे। पुराने कबाड़नुमा स्कूटर पर ऐसे चलते जैसे किसी राजा-महाराज की सवारी आ रही हो। स्कूटर पर सिंगल ही चलते, कारण कि उसमें सिर्फ उन्हीं को खींचने भर का दम था। मुंॅह में पान दबाए, पूरी अकड़ के साथ ड्राइविंग-सीट पर बैठते। चंूॅकि स्कूटर में हाॅर्न छोड़ सब कुछ बजता था, सो सवाल ही नहीं कि स्कूटर चलाते समय उन्हें कोई आवाज दे, और वे सुन लें। चूँकि इण्डीकेटर भी काम नहीं करते थे, सो स्कूटर चलाते वक्त, अपने दांयें या बायें मुड़ते वक्त, हाथ दिखाने के बजाय वो अपने पैर, बायीं या दायीं ओर निकाल देते। हम सब ने एक बार उनसे इस ‘लेग-इण्डीकेटर’ के बारे में पूछा तो बताने लगे...‘‘देखो, बायें हाथ में क्लच होता है, और दाहिने हाथ में एक्सीलरेटर। ऐसे में बायें या दायें मुड़ने की दिशा बताने के लिए सिर्फ पैर ही खाली मिलते हैं।’’

खैर...चचा बवाली के बारे में अभी सिर्फ इतना ही।

महेश की शादी की ये निमंत्रण-पत्र नुमा चिट्ठी जब मुझे मिली थी, तो उस वक्त मैं विश्वविद्यालय में पी. एच. डी. के लिए एनरोल्ड था। महेश को लग रहा था कि मैं अपने शोध-कार्य में तन-मन-धन से लगा हूँ, और बहुत बिजी हूँ। पर ऐसा कुछ भी नहीं था। शोध-कार्य तो मैं अपने घर वालों की निगाह में खुद को व्यस्त दिखाने वास्ते ज्वाॅइन किये हुए था। दो पेज के फुल-स्केप कागज पर साफ, सुघड़ हस्तलिपि में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी इस चिट्ठी में जो कुछ भी लिखा है, कुछ अंश तो बेहद आत्मीय हैं। एक बार अक्षरशः फिर पढ़ देना चाहता हूँ...‘अत्र् कुशलम् तत्रास्तु...यार शादी का निमन्त्रण-पत्र नहीं भेज पा रहा हूँ। सब कुछ इतना जल्दी-जल्दी में तय हुआ कि निमन्त्रण-पत्र छपवाने का समय ही नहीं मिल पाया। तुम इसे ही निमन्त्रण-पत्र समझना। वैसे तुम तो अपना शोध-पेपर्स वगैरह सबमिट करने में बहुत बिजी होगे। पर शादी में आने के लिये समय जरूर निकालना।’ 

चिट्ठी के अन्त में अॅण्डरलाइन करते...विशेष क्षेपक, देते हुए उसने ये भी लिखा था...‘भाई, तुम शादी में तो जरूर आओगे। इसीलिए तुम्हारे ज्ञानवर्धन वास्ते, बस-स्टेशन से विवाह-स्थल तक पहुँचने के लिए चिट्ठी के पीछे एक छोटा सा नक्शा बनाकर रास्ता बताये दे रहा हंूॅ, ताकि जगह ठीक से न ढूँढ़ पाने का बहाना न बना सकोे...जैसी कि तुम्हारी आदत है। वैसे, मुझे पक्का यकीन है, तुम शादी में जरूर आओगे।’
‘जरूर’...शब्द पर खासा जोर देते, ये शब्द उसने पूरी चिट्ठी में तीन जगह लिखा था। उसे पक्का यकीन था कि मैं उसकी शादी में जरूर शामिल होऊंॅगा। इसीलिए उसने चिट्ठी के आखिर में विवाह-स्थल तक पहंुॅचने का मार्ग, बाकायदे रेखाचित्रों के माध्यम से बनाते, विस्तार से समझाया भी था...‘‘बस स्टेशन से उतर कर सिविल-लाइन मेन चैराहे तक आने के बाद पूरब की ओर जाने वाली सड़क पर लगभग सौ कदम चलने पर सड़क के दाहिनी ओर इण्टर-काॅलेज की एक बिल्डिंग दिखेगी, काॅलेज बहुत फेमस है, बल्कि वहाँ वही एक इण्टर-काॅलेज ही है। वहाँ पहुँच कर किसी से भी पूछ लोगे, बता देगा। जनवासे ओर बारात के ठहरने का इन्तजाम भी वहीं है। बारात तीन दिन की है। फुर्सत से छुट्टी लेकर आना। कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी।’’

रेखाचित्र में बस-स्टेशन को दर्शाने के लिये एक बस और इण्टर-काॅलेज दर्शाने के लिये एक अच्छी-खासी बिल्डिंगनुमा संरचना पर छोटा गुम्बद बनाते, उसके आगे मैदान में खेलते कुछ बच्चों को भी दर्शाया गया था। सिविल-लाइन का मेन चैराहा बनाने के बाद, चैराहे से चारों तरफ निकल रहीं सड़कें, किन-किन गन्तव्य तक जाती हैं, तीर बनाते, बखूबी उनका भी नाॅमेनक्लेचर किया हुआ था। चित्र बनाने में वो पुराने माहिर जो था।

कालान्तर में महेश और मेरी पोस्टिंग एक ही शहर में हो गयी। ऐसे में हमारा एक-दूसरे के घर प्रायः आना-जाना रहता। महेश की पत्नी ब्यूटी विथ ब्रेन का बेजोड़ उदाहरण थीं। उनके ऊपरी होंठ पर, खूबसूरती में चार-चाँद लगाते, छोटा सा एक तिल भी था। चूँकि उनकी बात-बतकही थोड़ा देशज टच लिए होती थी, सो बातचीत का उनका लहजा हमें सहज ही लुभाता।

हमने गौर किया कि शादी के बाद महेश के खान-पान में उल्लेखनीय परिवर्तन आया। पहले वो शाकाहारी था, लेकिन शादी के बाद नियमित रूप से शाम को दो उबले अण्डे जरूर खाने लगा। ये अलग बात है कि इस बदलाव का कारण पूछने पर वो अक्सर हंॅस कर टाल जाता। अतः असल वजह हम कभी जान ही नहीं पाये।

महेश अपने कद और व्यक्तित्व, को लेकर पहले से ही एहसास-ए-कमतरी से जूझ रहा था। शादी के बाद तो उसके मन में तरह-तरह के खयाल आने लगे। दोस्तों संग बातचीत में उसे हर वक्त एक अज्ञात असुरक्षा-बोध सा बना रहता। वैसे भी वो शुरू से ही थोड़ा सिड़ी टाइप का ठहरा। कालान्तर में विश्वस्त सूत्र्ाों से हमें ये भी पता चला था कि शादी के बाद वो अपनी इस कमी को दूर करने वास्ते बाकायदे रात-रात भर जाग कर, अंग्रेजी भाषा में लिखी पर्सोनाल्टी- डेवलपमेण्ट इत्यादि की किताबें भी पढ़ा करता था। एक किताब तो मैंने भी उन्हें गिफ्ट की थी।

अंग्रेजी भाषा में लिखी किताबें पढ़ने के पीछे के उसके अपने तर्क थे। कहता था...‘‘इससे सामने वाले पर विशिष्ट इम्प्रेशन पड़ता है।’’ शायद एहसास-ए-कमतरी की समस्या को कुछ हद तक दूर करने की दिशा में उठाया गया उसका कोई अप्रतिम-कदम रहा हो? पर ये कदम उसके व्यक्तित्व में निखार लाने में कितना असरदार या मददगार रहा, उसके व्यक्तित्व की परतों को कितना ढ़ंॅक पाया? कितना उभार पाया? इस बारे में मैं अभी भी अनजान हूँ।
एक समय ऐसा भी आया कि वो अपनी पर्सोनैलिटी को लेकर बेहद सिन्सियर हो गया। इसके लिये उसने बाकायदे कोचिंग-क्लाॅस भी ज्वाॅइन करने की सोची। पर उसमें और अच्छाइयों के अलावा एक अच्छाई और भी थी कि वो हम दोस्तों की बातें, हमारे सुझाव अवश्य मानता। मैंने उसकी समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया और उसे समझाया ‘गुरू...कहांॅ पड़े हो ऐसों के चक्कर में? इस कोचिंग-फोचिंग से कुछ फायदा नहीं होने वाला। हमें हर-हाल में यथास्थिति स्वीकार करनी चाहिये। बहुत सी चीजों पर हमारा नियन्त्रण नहीं होता। हमें उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना होता है...जिस रूप में वो हैं। समझो जीवन की इस वास्तविकता को?’’

समझाने के इस क्रम में आगे मैंने उसे देश-विदेश के ढे़रों महान विचारकों, विद्वानों के जग-प्रसिद्ध कोटेशन्स आदि की भी याद दिलाई, तब कहीं जाकर वो माना। पर उसमें एक खराबी भी है। वो आसानी से किसी की तारीफ नहीं करता। मेरी इस दुर्लभ राय पर सराहना तो उसकी तरफ से नहीं मिली। परन्तु उसकी घर वाली ने हमें जरूर सराहा, ये कहते कि...‘‘भाई साहब से कुछ सीखिये। ई ठीक कहते हैं...जउन है तउन से।’’ फिर हमारी तरफ मुखातिब होते जोड़ा...‘‘भाई साहब आप ही कुछ समझाइये इन्हें, जउन है तउन से। कितने दिनों से कितनी ही बार कहा कि जो प्लाॅट ले रखा है, उसकी बवण्डली (बाउण्ड्री) खिंचवा दीजिए। क्रचमिन्ट (एनक्रोचमेण्ट) का खतरा है, पर ये है कि सुनते ही नहीं...जउन है तउन से।’’

यहाँ बताता चलूँ...बातचीत के बीच-बीच में महेश की पत्नी का ये ‘‘जउन है तउन से’’ तकिया-कलाम बोलना, हमें बहुत भाता था। चूँकि महेश की पत्नी का नाम आशा था, सो हमने भी कयास लगाया कि पत्नी के पदार्पण से उसके जीवन में शनैः शनैः आशा का अप्रतिम संचार अवश्य होगा।

उन्हीं दिनों हमने उसकी एक आदत पर गम्भीरतापूर्वक गौर किया था। गहरे दोस्त जो ठहरे। अमूमन महेश अपनी पत्नी के साथ खड़े होने से बचता। भरसक उसकी यही कोशिश रहती कि पत्नी के बगल में खडे़ होने के संयोग कम ही आयें। परन्तु सामाजिकता या व्यावहारिकता के नाते कह लीजिये, कभी-कभार उसके सामने ऐसे दुर्लभ मौके या दुविधा के क्षण आ ही जाते। जैसे कि...कभी बाहों में बाहें डाल कर, ग्रुप में फोटो-शोटो खिंचवाना हो तो उसे अपनी पत्नी के साथ खड़ा होना ही पड़ता था। ऐसे मौकों पर वो तड़ से अपनी झुकी कमर को सीधा करते, कन्धे को पीछे फेंकते, गर्दन सीधी करते, वक्ष को हल्का सा आगे की ओर उभारते, चेहरे पर भेद-भरी मुस्कुराहट बिखेरते खडे़ रहने का तनावपूर्ण प्रयास करता। इन कवायदों से उसके व्यक्तित्व में कितना निखार आया? जानकारी के अभाव में अभी की स्थिति में मेरे तईं इस बिन्दु पर भी प्रकाश डालना सम्भव नहीं है। अब तो उसकी खल्वाट सी खोपड़ी पर अच्छा-खासा चाँद भी दिखने लगा है।

चूँकि महेश, हम कुछ दोस्तों से, जो इसी शहर में रहते हैं, की आदतों- फितरतों से भली-भांॅति वाकिफ था, सो शुरू-शरू में हमारा उसके यहांॅ टाइम-कुटाइम जा धमकना, उसे अच्छा नहीं लगता था। तिस पर उसकी पत्नी जब हमारी किन्हीं बेतुकी बातों पर या कभी बिन बात ही दंतुरित मुस्कान सहित फिस्स देना, हंॅस देतीं, जिससे उनके गाल में जो बहुआयामी गड्ढ़ा सा बन जाता, जिस पर हम उतनी गम्भीरता से भले न गौर करें, पर महेश जरूर गौर करता।

महेश, धीरे-धीरे हमारी उपेक्षा भी करने लगा। काहे से कि शुरू-शुरू में कभी-कभार जब हम उसके घर जाते, तो काफी देर इन्तजार के बाद उसकी पत्नी सिर्फ दो-तीन खाली गिलास और एक लोटा पानी लेकर ही उपस्थित होतीं। जब हम चलने को होते तो, बैठक से ही पत्नी को आवाज देकर चाय की याद दिलाते...‘‘अररे...भई चाय बन गयी हो तो चाय जरा जल्दी लाऽ...नाऽ...।’’ उसके इस संकेत को हम भली-भाँति समझते थे, और हम ...‘‘छोड़ो यार...चाय फिर कभी सही...अभी हमें जल्दी निकलना भी है।’’ कहते, हम वहाँ से निकल लेते थे।

कालान्तर में नानाकारणोंवश, तो कुछ दुनियावी व्यस्ततावश, हम दोस्तों का महेश के घर जाना-आना लगभग न के बराबर ही रहा, जो शनैः शनैः बन्द भी हो गया। बस्स एक बार अपनी पत्नी को उसकी पत्नी से मिलवाने जरूर ले गया था। खैर...अब तो वो भी बाल-बच्चेदार हो गया है, और अपनी पत्नी के सुरूचिसम्पन्न व्यवहार के कारण, हंॅसी-खुशी परिवार संग जिन्दगी व्यतीत करते, जोशो-खरोश से पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर रहा है। अब तो वो काम-काज, दुनियादारी में इस कदर निपुण हो गया है कि उसे जानने वाले गाहे-बगाहे जब टकरा जाते हैं, तो उसके बारे में पूछने पर यही बताते हैं कि ‘ऊ तो भइया ‘मल्टी-टास्किंग’ के उस्ताद हैं।’

चिट्ठी के अंत में महेश ने दुर्लभ डिजाइन युक्त ऐसा मारू हस्ताक्षर किया हुआ है कि देख कर अन्तर्मन अश-अश कर बैठे। जिसे जितनी बार, जितने ही दृष्टिकोणों से देखिये या किसिम-किसिम तरीकों से डेसिफर कीजिये, अलग ही अर्थ निकलेंगे, जो यकीनन उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचायक है। लगभग तैइस-चैबीस साल पहले किसी की लिखी, मेरे पास सिर्फ यही एक आखिरी चिट्ठी सुरक्षित है। बेशक...किसी धरोहर की तरह। 

वैसे, इस चिट्ठी को देखते इस बात का अफसोस भी होता है कि महेश ने ये चिट्ठी, जो मुझे अपनी शादी में शामिल होने के लिए लिखी थी। बड़ी शिद्दत से उम्मीद भी की थी कि मैं उसकी शादी में जरूर शामिल होऊँगा। अफसोस! कि मैं उसकी शादी में शामिल नहीं हो सका था।

लेखक-परिचय

हिंदी कहानी

नाम- रामनगीना मौर्य
पिता का नाम- स्व0 श्री कमला प्रसाद,
माता का नाम- स्व0 श्रीमती जिलेबा देवी,
गृह जनपद- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश,
शिक्षा- परास्नातक (अर्थशास्त्र),

रचनात्मक उपलब्धियाँ


(क) पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशन-

साहित्य जगत की देश/ प्रदेश की लब्धप्रतिष्ठ विभिन्न पत्र/पत्रिकाओं, यथा...‘कथादेश, समावर्तन, हिन्दी समय.काॅम, पुरवाई (कथा यू. के.) वागर्थ, परिकथा, पाखी, नई धारा, जनपथ, जनसत्ता, दुनिया इन दिनों, शीतल वाणी, समकालीन अभिव्यक्ति, अभिदेशक, सामयिक सरस्वती, लहक, समहुत, साहित्य समीर दस्तक, अंग चम्पा, सुखनवर, साहित्यिकी, शब्दसत्ता, मुद्राराक्षस उवाच, अविराम साहित्यिकी, पलाश, सृजन कुंज, पंकज (माॅरीशस), स्रवन्ति, अनुकृति, संवदिया, हरिगंधा, पूर्वापर, सरकारी मंथन, काव्यामृत, अनुगंूॅज साहित्यिक ब्लाॅग, युगधारा, अदबी उड़ान, परिवर्तन ई-पत्रिका, बुलन्दप्रभा, राजस्थान पत्रिका, मधुमती, साहित्यप्रीत-वेब पत्रिका, मरू नवकिरण, छत्तीसगढ़ मित्र, पे्रमचन्द पथ, मनस्वी, परिन्दे, लमही, प्राची, वीणा, ककसाड़, निकट, पतहर, इंडिया इनसाइड, मनस्वी, नव निकष, किरण वार्ता, नवरंग, मुक्तांचल, पत्रकार सुमन, अक्षरा, साहित्य गुंजन, वर्तमान हलचल, सृजनोन्मुख, गांॅव गिरांॅव, अंग चम्पा, असली खबर, क्रान्ति जागरण, चाणक्य वार्ता, सम्पर्क भाषा भारती, प्रेरणा अंशु, आई वाॅच, नूतन कहानियांॅ, साहित्यांजलि प्रभा, नये पल्लव मंथन, आलोकपर्व, साहित्य एक्सप्रेस, समर सलिल, युगतेवर, बस्तर पाति, हिचकी, निर्झर टाइम्स, दस्तक प्रभात, बोधिसत्व बाबा साहब टुडे, उजाला, एडवाण्टेज टुडे, विश्व विधायक, संसद से सड़क तक, दैनिक सवेरा टाइम्स, अवध-अर्चना, अनुगुंजन, स्वतंत्र भारत, शब्दिता, उत्तर प्रदेश, अपरिहार्य, अभिनव मीमांसा, आधुनिक साहित्य, दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, अभिनव इमरोज, ईस्ट राइटर, बरोह, साहित्य वाटिका, विटनेस टुडे, निर्भीक केसरी, 7 डेज नागरिक, फोटो वाॅयस, प्रणाम पर्यटन, राष्ट्र समाज, उदय सर्वोदय, हाॅटलाइन, साहित्य यात्रा, बृहद सन्देश, कर्मश्री, अभिनव प्रयास, साहित्य परिवार, अभियान टुडे, साहित्य भारती, सोच विचार, जन सन्देश टाइम्स, उजेषा टाइम्स, रचना उत्सव, इंडिया मोमेन्ट, साहित्य गन्धा, टाइम्स कृष्णा, दस्तक टाइम्स, यथावत, अपना भारत, पत्रकार न्यूज, प्रतिलिपि, जनहित इण्डिया, वृत्त मित्र, हिन्दी विवेक, नये क्षितिज, मीडिया मंच, आदि में समय-समय पर कहानियां, कविताएं, निबन्ध आदि रचनाएं प्रकाशित।

(ख) साझा संकलन-

1-समकालीन हिन्दी कविता, ‘साझा कविता संग्रह’ में कविता प्रकाशित।

2-भाषा सहोदरी- हिन्दी, नई दिल्ली से प्रकाशित कविता/कहानी पुस्तकों में रचनाएं प्रकाशित।

3-शब्द निष्ठा सम्मान- 2018 के अन्तर्गत, आधुनिक ‘हिन्दी साहित्य केचयनित व्यंग्य’ पुस्तक में व्यंग्य रचना प्रकाशित।

4-कलमकार मंच, जयपुर की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित ‘‘कलमकारपुरस्कार, 2018-2019’’ के अन्तर्गत पुरस्कत एवं चयनित प्रतिभागी लेखकों की रचनाओं से सुसज्जित ‘कलमकार’ पत्रिका में प्रकाशन हेतु कहानी चयनित/ प्रकाशित।

5- भारत-नेपाल कथा संगम-(कहानी संग्रह) सम्पादक डाॅ0 राजेन्द्र परदेशी, डाॅ0 भाष्कर शर्मा, सह-सम्पादक डाॅ0 रामकुमार पण्डित क्षत्री- परिन्दे प्रकाशन नई दिल्ली, में कहानी प्रकाशित।

6- सृजना साहित्यिक संस्था- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय साझा कहानी संकलन ‘‘जीवन यथार्थ’’ में कहानी प्रकाशित।

7- श्री विभूति भूषण झा के सम्पादन में प्रकाशित 125 रचनाकारों के साझा संकलन पुस्तक ‘‘इन्नर’’ में चयनित कहानी प्रकाशित।

(ग) पुस्तक प्रकाशन-

1-एक कहानी संग्रह ‘‘आखिरी गेंद’’ वर्ष-2017 में रश्मिप्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित है। (कहानी संग्रह-‘आखिरी गेंद’ की समीक्षाएं भी समय-समय पर विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।)

2-दूसरा कहानी संग्रह ‘‘आप कैमरे की निगाह में हैं’’ वर्ष-2018 में रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित है। (कहानी संग्रह-‘आप कैमरे की निगाह में हैं’ की समीक्षाएं भी समय-समय पर विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।)

3-तीसरा कहानी संग्रह- ‘‘साॅफ्ट काॅर्नर’’ वर्ष 2019 में रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित। (कहानी संग्रह-’साॅफ्ट काॅर्नर’ की समीक्षाएं भी समय-समय पर विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।)

(घ)-‘‘भारत के हिन्दी कथाकारों पर केन्द्रित कथाकोश- कथादेश’’ में कहानी प्रकाशित-

टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्व विद्यालय एवं डाॅ0सी.वी.रामन विश्व विद्यालय, रायसेन- मध्यप्रदेश के सहयोग से ‘‘कथादेश- हिन्दी कहानी के दो सौ साल- भारत के प्रमुख हिन्दी कथाकारों का कथा संचयन’’ विश्व रंग- 2019 के अवसर पर प्रधान सम्पादक श्री संतोष चैबे जी के मार्गदर्शन में प्रकाशित ‘‘भारत के हिन्दी कथाकारों पर केन्द्रित कथाकोश- कथादेश’’ के खण्ड-17, युवा कहानी- 3 की सूची में कहानी ‘नव दम्पति’ प्रकाशित।

पुरस्कार/सम्मान-
(1) शतदल साहित्यिक संस्थान, बलरामपुर द्वारा अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद, उत्तर प्रदेश के लिए वर्ष 1984 में आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त।
(2) राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा वर्ष 2012 में आयोजित निबन्ध/लेख प्रतियोगिता में रू. 1000/- के नकद पुरस्कार से सम्मानित।
(3) राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा वर्ष 2016-17 में सतत साहित्य साधना के लिए ‘साहित्य गौरव सम्मान’।
(4) के. बी. हिन्दी साहित्य समिति (पंजी.), बिसौली- बदायंूॅ- उ0प्र0 द्वारा ‘अ0 भा0 साहित्यकार सम्मान-2017’ के अन्तर्गत, हिन्दी भाषा के उन्नयन/ विकास/ समग्र लेखन/ साहित्यिक सेवाओं/ सम्पादन हेतु उल्लेखनीय योगदान एवं कहानी संग्रह ‘आखिरी गेंद’ के लिए ‘स्व0 जामवती देवी स्मृति हिन्दी भूषण श्री’ सम्मान, एवं रूपया 1100/- की धनराशि प्राप्त।
(5) के. बी. हिन्दी साहित्य समिति (पंजी.), बिसौली- बदायंूॅ- उ0प्र0 द्वारा ‘‘अ0 भा0 साहित्यकार सम्मान-2018’ के अन्तर्गत, हिन्दी भाषा के उन्नयन/ विकास/ समग्र लेखन/ संपादन/ साहित्यिक सेवाओं/ सामाजिक/शैक्षिक कार्यों में उल्लेखनीय योगदान हेतु ‘‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी स्मृति सम्मान’’ से अलंकृत।
(6) राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, द्वारा हिन्दी भाषा गद्य की मौलिक कृति, कहानी संग्रह ‘‘आखिरी गेंद’’, वर्ष 2017-18 के लिए ‘‘डाॅ0 विद्यानिवास मिश्र’’ पुरस्कार (रू0 1,00,000/-)।
(7) साहित्य समर्था, त्रैमासिक पत्रिका द्वारा आयोजित, ‘‘अखिल भारतीय डा0 कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता- 2017’’ में कहानी- ‘बोलतेपत्थर’, श्रेष्ठ कहानी के रूप में पुरस्कृत।
(8) कहानी संग्रह, ‘‘आखिरी गेंद’’, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वारा वर्ष- 2017 में रूपये 75 हजार के अन्तर्गत ‘‘यशपाल पुरस्कार’’ ।
(9) ‘‘प्रोफेसर महेंद्र प्रताप स्मृति पुरस्कार-2019’’ के अन्तर्गत कहानी लेखन कर्म के लिए ‘महेन्द्र विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’।
(10) गुजरात एवं उत्तर प्रदेश से एक साथ प्रकाशित की जा रही हिन्दी साहित्य, कला एवं संस्कृति चेतना की पत्रिका ‘‘साहित्य परिवार’’ के तत्वाधान में आयोजित साहित्योत्सव, वर्ष- 2018 ‘‘धानपाती सम्मान’’ के अन्तर्गत कहानी के लिए ‘‘प्रेमचन्द एवार्ड’’।
(11) अखिल भारतीय साहित्य परिषद उत्तर प्रदेश, लखनऊ से, साहित्यिक योगदान के लिए वार्षिक सारस्वत सम्मान के अन्तर्गत 13 मार्च 2019 को ‘‘साहित्य परिक्रमा सम्मान’’।
(12) अखिल हिन्दी साहित्य सभा (अहिसास), नासिक- महाराष्ट्र द्वारा ‘‘राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मान- 2019’’ के अन्तर्गत, कहानी संग्रह ‘‘आप कैमरे की निगाह में हैं’’ को ‘‘साहित्य शिरोमणि सम्मान’’ (रूपये, 5100/-) ।
(13) साहित्य सृजन मंच, विसवाँ- सीतापुर द्वारा साहित्य के क्षेत्र में निरन्तर सक्रिय योगदान के लिए वरेण्य समाजसेवी, स्व0 गिरीश चन्द्र गुप्त स्मृति सम्मान।
(14) सृजना साहित्यिक संस्था- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश द्वारा समग्र साहित्यिक, विशेष रूप से कथा लेखन के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान हेतु ‘‘मुंशी प्रेमचन्द कथा सम्राट सम्मान’’ से अलंकृत।
(15) भोपाल से प्रकाशित होने वाली साहित्य जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘‘साहित्य समीर दस्तक’’ द्वारा आयोजित ‘‘कहानी प्रतियोगिता-2019’’ में तृतीय स्थान के लिए कहानी पुरस्कृत।

सम्प्रति- राजकीय सेवारत (उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में विशेष सचिव के पद पर कार्यरत।)

सम्पर्क- राम नगीना मौर्य,
5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर
लखनऊ - 226010, उत्तर प्रदेश,
मोबाइल न0-9450648701,

ई मेल- ramnaginamaurya2011@gmail.com

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