प्रतिभाशाली युवा साहित्यकार शिव कुशवाहा की कविताएँ
'आपकी कलम से' स्तम्भ के अंतर्गत पढ़िए प्रतिभाशाली युवा साहित्यकार शिव कुशवाहा की कविताएँ
पक्षियों की तरह नहीं होती
मनुष्यों की भाषा
पक्षियों की अनुभूति
भाषा के साथ जुड़ी रहती है
इसलिए वे सदियों तक
समझते हैं अपने आत्मिक संवाद
मनुष्य भाषाओं पर झगड़ते हैं
उसके संवेदनसिक्त हर्फ़ों को
हथियार बनाकर
भेदते हैं एक दूसरे का हृदय
मनुष्यों की भाषा के शब्द
ग्लोबल हो रही दुनिया में
बड़ी बेरहमी से
संस्कृतियों से हो रहे हैं दूर
भाषिक सभ्यता के खंडहर में
दबे हुए मनुष्यता के अवशेष
और शिलालेखों पर उकेरी गयी
लिपियों के अंश
अपठित रह गए मनुष्यों के लिए
भाषा की अनुभूतियां
विलुप्त हो रही हैं
अवसान होते खुरदरे समय में
कि अब छोड़ दिया है मनुष्यों ने
संवेदना की भाषा में बात करना..
फूल और स्त्री
खिले हुए फूलों की सुंदरता
सबसे अधिक आकर्षित करती है
एक स्त्री को
और एक स्त्री की सुंदरता
पूरी दुनिया को करती है नजरबंद
खिले हुए फूलों के
बहुत करीब होती है स्त्री
और स्त्री बहुत करीब होती है
सुकोमल भावनाओं के.
स्त्री के विचार
होते हैं फूलों की तरह कोमल
और हृदय होता है
पंखुड़ियों की तरह उन्मुक्त
धरती पर गिरे हुए फूल
अपनी खूबसूरती नहीं छोड़ते
उसी तरह एक स्त्री
सम्हालती है खुद को
बचा लेती है अपने लिए
खोया हुआ अपना सत्व
कि फूल और स्त्री
पूरी दुनिया के इतिहास में
सबसे सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति है..
खिले हुए फूलों की सुंदरता
सबसे अधिक आकर्षित करती है
एक स्त्री को
और एक स्त्री की सुंदरता
पूरी दुनिया को करती है नजरबंद
खिले हुए फूलों के
बहुत करीब होती है स्त्री
और स्त्री बहुत करीब होती है
सुकोमल भावनाओं के.
स्त्री के विचार
होते हैं फूलों की तरह कोमल
और हृदय होता है
पंखुड़ियों की तरह उन्मुक्त
धरती पर गिरे हुए फूल
अपनी खूबसूरती नहीं छोड़ते
उसी तरह एक स्त्री
सम्हालती है खुद को
बचा लेती है अपने लिए
खोया हुआ अपना सत्व
कि फूल और स्त्री
पूरी दुनिया के इतिहास में
सबसे सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति है..
उम्मीद के पहाड़
समय अपने सुनहरे पंख लगाकर
उड़ रहा है हमारे इर्द गिर्द
मुठ्ठी में फिसलती हुई बालू की मानिंद
वह जा रहा है हमारी पहुँच से बहुत दूर
आकाश में उड़ रहे पंक्षी
समय की पदचाप सुन रहे हैं
वे महसूस कर रहे हैं
धरती पर विस्तार लेता उदासी का परिवेश
नदी में तैर रही मछलियां
तरंगों की छिपी हलचल देख रही हैं
वे महसूस कर रही हैं
पानी में घुल रही विषैली दवाइयां
धरती पर उगे हुए पेड़
हवा के रुख को पहचान रहे हैं
वे महसूस कर रहे हैं
घिरे हुए खुद को खतरनाक गैसों के आवरण में
अब उम्मीद के पहाड़
दरक रहे हैं बहुत तेजी से
और साथ ही साथ दरक रहा है
हमारे अंदर का खोया हुआ अपनापन..
बहुत दूर तक बहा ले जाना चाहती हैं
जहाँ समय के रक्तिम हो रहे क्षणों को
पहचानना बेहद मुश्किल हो चला है
तुम समय के ताप को महसूस करो
कि जीवन-जिजीविषा की हाँफती साँसों में
धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं हमारी सभ्यताएं
स्याह पर्दे के पीछे
छिपे हैं बहुत से भयावह अक्स
जो देर सबेर घायल करते हैं
हमारे इतिहास का वक्षस्थल
और विकृत कर देते हैं जीवन का भूगोल
हवा में पिघल रहा है
मोम की मानिंद जहरीला होता हुआ परिवेश
और तब्दील हो रहा है
हमारे समय का वह सब कुछ
जिसे बड़े सलीके से संजोया गया
संस्कृतियों के लिखित दस्तावेजों में
बिखर रही उम्मीद की
आखिरी किरण सहेजते हुए
खत्म होती दुनिया के आखरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द,
और बची रहेगी कविता की ऊष्मा..
अब पानी की कमी जाहिर हो चुकी है
कदम दर कदम जब साथ चलना जरूरी होता है
तब संताने छोड़ देती है उनका हाथ
उनके ध्वंस होते हुए सपनों ने
देख ली है संबंधों की हकीकत
कराह रही मानवीय संवेदना को
अब पढ़ लिया है उनकी पथराई आंखों ने
उन्मुक्त आकाश की ऊचाइयों पर
डेरा बनाने वाले पक्षी की तरह
उनकी बेरंग हो चुकी जिंदगी भी
अब निर्द्वन्द जीना चाहती है अपना जीवन
साथ ही साथ देखना चाहती है वह सब कुछ
जो एक जीवन जीने के लिए होता है जरूरी
जाहिर हो चुका है
कि भाषा ने भी तोड़ दिया है अपना दम
कवि की कलम कांप जाती है बार बार
कविता भी असमर्थ हो गयी है
चंद शब्दों की व्यथा-कथा कहने में
हम बेरंग हो चुकी धरती पर सीखें रंग भरना
क्योंकि बेरंगी में तब्दील हो रही दुनियां
अब बाट जोह रही है फिर अपने रंग में वापस होना..
------------------------------ ------
रचनाकार-परिचय :
नाम- शिव कुशवाहा
जन्मतिथि- 5 जुलाई , 1981
जन्मस्थान- कन्नौज ( उ प्र)
शिक्षा - एम ए (हिन्दी), एम. फिल.,नेट, पीएच.डी.
प्रकाशन-
छायावादी काव्य की आत्मपरकता ( शोध पुस्तक),
समकालीन कविता भाग - 2 (साझा कविता संग्रह)
शब्द-शब्द प्रतिरोध (संपादन, साझा काव्य संग्रह)
'तो सुनो' - एकल काव्य संग्रह
अन्य प्रकाशन-
पुनर्नवा (दैनिक जागरण), आजकल, पाखी, साहित्य अमृत, कथाक्रम, उत्तर प्रदेश, अक्षरा, मधुमती, निकट, समहुत, गांव के लोग, नई धारा, परिंदे, सोच विचार, ककसाड़, सृजन सरोकार, अनुकृति, किस्सा कोताह, आधुनिक साहित्य, समकालीन अभिव्यक्ति, शीतलवाणी, कविकुम्भ, लहक, युद्धरत आम आदमी, विभोम स्वर,उदय सर्वोदय, प्राची, पतहर, जनकृति, दलित अस्मिता, दलित वार्षिकी , सच की दस्तक, तीसरा पक्ष, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, अम्बेडकर इन इंडिया, कलमकार, नवपल्लव , लोकतंत्र का दर्द , पर्तों की पड़ताल, शब्द सरिता, निभा, नवोदित स्वर , ग्रेस इंडिया टाइम्स, अमर उजाला, जनसंदेश टाइम्स आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर काव्य रचनाएं प्रकाशित ।
ई ब्लॉग - कविता कोश, परिवर्तन, बिजूका, पहलीबार, पाखी, लिटरेचर पॉइंट, हस्तक्षेप, हस्ताक्षर, अमर उजाला काव्य आदि पर कविताएँ प्रसारित।
सम्प्रति- अध्यापन
समय अपने सुनहरे पंख लगाकर
उड़ रहा है हमारे इर्द गिर्द
मुठ्ठी में फिसलती हुई बालू की मानिंद
वह जा रहा है हमारी पहुँच से बहुत दूर
आकाश में उड़ रहे पंक्षी
समय की पदचाप सुन रहे हैं
वे महसूस कर रहे हैं
धरती पर विस्तार लेता उदासी का परिवेश
नदी में तैर रही मछलियां
तरंगों की छिपी हलचल देख रही हैं
वे महसूस कर रही हैं
पानी में घुल रही विषैली दवाइयां
धरती पर उगे हुए पेड़
हवा के रुख को पहचान रहे हैं
वे महसूस कर रहे हैं
घिरे हुए खुद को खतरनाक गैसों के आवरण में
अब उम्मीद के पहाड़
दरक रहे हैं बहुत तेजी से
और साथ ही साथ दरक रहा है
हमारे अंदर का खोया हुआ अपनापन..
बचे रहेंगे शब्द
नेपथ्य में चलती क्रियाएंबहुत दूर तक बहा ले जाना चाहती हैं
जहाँ समय के रक्तिम हो रहे क्षणों को
पहचानना बेहद मुश्किल हो चला है
तुम समय के ताप को महसूस करो
कि जीवन-जिजीविषा की हाँफती साँसों में
धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं हमारी सभ्यताएं
स्याह पर्दे के पीछे
छिपे हैं बहुत से भयावह अक्स
जो देर सबेर घायल करते हैं
हमारे इतिहास का वक्षस्थल
और विकृत कर देते हैं जीवन का भूगोल
हवा में पिघल रहा है
मोम की मानिंद जहरीला होता हुआ परिवेश
और तब्दील हो रहा है
हमारे समय का वह सब कुछ
जिसे बड़े सलीके से संजोया गया
संस्कृतियों के लिखित दस्तावेजों में
बिखर रही उम्मीद की
आखिरी किरण सहेजते हुए
खत्म होती दुनिया के आखरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द,
और बची रहेगी कविता की ऊष्मा..
बेरंग हो चुकी धरती पर
ठूँठ हो चुके संबंधो मेंअब पानी की कमी जाहिर हो चुकी है
कदम दर कदम जब साथ चलना जरूरी होता है
तब संताने छोड़ देती है उनका हाथ
उनके ध्वंस होते हुए सपनों ने
देख ली है संबंधों की हकीकत
कराह रही मानवीय संवेदना को
अब पढ़ लिया है उनकी पथराई आंखों ने
उन्मुक्त आकाश की ऊचाइयों पर
डेरा बनाने वाले पक्षी की तरह
उनकी बेरंग हो चुकी जिंदगी भी
अब निर्द्वन्द जीना चाहती है अपना जीवन
साथ ही साथ देखना चाहती है वह सब कुछ
जो एक जीवन जीने के लिए होता है जरूरी
जाहिर हो चुका है
कि भाषा ने भी तोड़ दिया है अपना दम
कवि की कलम कांप जाती है बार बार
कविता भी असमर्थ हो गयी है
चंद शब्दों की व्यथा-कथा कहने में
हम बेरंग हो चुकी धरती पर सीखें रंग भरना
क्योंकि बेरंगी में तब्दील हो रही दुनियां
अब बाट जोह रही है फिर अपने रंग में वापस होना..
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रचनाकार-परिचय :
नाम- शिव कुशवाहा
जन्मतिथि- 5 जुलाई , 1981
जन्मस्थान- कन्नौज ( उ प्र)
शिक्षा - एम ए (हिन्दी), एम. फिल.,नेट, पीएच.डी.
प्रकाशन-
छायावादी काव्य की आत्मपरकता ( शोध पुस्तक),
समकालीन कविता भाग - 2 (साझा कविता संग्रह)
शब्द-शब्द प्रतिरोध (संपादन, साझा काव्य संग्रह)
'तो सुनो' - एकल काव्य संग्रह
अन्य प्रकाशन-
पुनर्नवा (दैनिक जागरण), आजकल, पाखी, साहित्य अमृत, कथाक्रम, उत्तर प्रदेश, अक्षरा, मधुमती, निकट, समहुत, गांव के लोग, नई धारा, परिंदे, सोच विचार, ककसाड़, सृजन सरोकार, अनुकृति, किस्सा कोताह, आधुनिक साहित्य, समकालीन अभिव्यक्ति, शीतलवाणी, कविकुम्भ, लहक, युद्धरत आम आदमी, विभोम स्वर,उदय सर्वोदय, प्राची, पतहर, जनकृति, दलित अस्मिता, दलित वार्षिकी , सच की दस्तक, तीसरा पक्ष, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, अम्बेडकर इन इंडिया, कलमकार, नवपल्लव , लोकतंत्र का दर्द , पर्तों की पड़ताल, शब्द सरिता, निभा, नवोदित स्वर , ग्रेस इंडिया टाइम्स, अमर उजाला, जनसंदेश टाइम्स आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर काव्य रचनाएं प्रकाशित ।
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सम्प्रति- अध्यापन
पता -
ताजपुर नौकास्त
पावर हाउस के ठीक पीछे
मकरंद नगर , कन्नौज (उ प्र)
पिन- 209725
सम्पर्क सूत्र- 07500219405
E mail- shivkushwaha.16@gmail. com
ताजपुर नौकास्त
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मकरंद नगर , कन्नौज (उ प्र)
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