कविता- आज मुझे कुछ लिखने दो

मित्रों, लंबे समय के बाद आज एक नयी रचना के साथ पुनः उपस्थित हुआ हूँ। मुझे नहीं पता इसे ग़ज़ल कहूँ अथवा कविता पर जो भी है आपके समक्ष सादर प्रस्तुत है। अब आप स्वयं तय करें, यह ग़ज़ल है कि कविता। रचना का शीर्षक है- 'लिखने दो'। पढ़कर बताइएगा, आपको मेरी नयी रचना  कैसी लगी। 

Sundar kavita/ ghazal - Dard bhari shayari - Kuchh likhne do
कुछ अनकही


सदियाँ बीतीं चुपचुप रहते आज मुझे कुछ लिखने दो।
विकल हो गया सहते-सहते आज मुझे कुछ लिखने दो।।

हृदय स्पंदन विचलित, वर्धित नयन अनींदे, अलसाये,
एक अनजाना स्वर कानों में कहता है कुछ लिखने दो।।

कब तक रोऊँ अश्रु बहाऊँ, कब तक पश्चात्ताप करूँ,
ज़ख्मों ने भी हँसकर बोला मत रोको कुछ लिखने दो।।

राधा की हो या मीरा की, पीर तो दुनिया जाने है।
कृष्ण मुरारी भी उकताकर बोल उठे कुछ लिखने दो।।

तुम न समझना यह निज मन के भावों का अभिव्यंजन है,
सारे जग की मनोव्यथा का सार छिपा है, लिखने दो।।

रचना के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा। धन्यवाद!

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