हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूँगा - स्मृतिशेष श्री अटल बिहारी बाजपेयी

मन व्यथित है!
माना कि अब आप राजनीति में सक्रिय नहीं थे लेकिन आपका होना ही बहुत से राजनैतिक संकटों, बाधाओं और दुष्प्रेरणाओं को दूर रखे हुए था। आपके कभी "हार न मानने" वाले अटल इरादे और संकल्प की प्रतिच्छाया "स्वर्णिम चतुर्भुज" के सदृश समस्त भारतवर्ष को अब तक आच्छादित किये हुए थी। आपका चले जाना एक परिपाटी का अंत है, एक संकल्पना का अंत है, एक युग का अंत है।

लोगों के लिए आप राजनेता रहे होंगे, पत्रकार रहे होंगे, साहित्यकार रहे होंगे, प्रगल्भ वक्ता रहे होंगे, भाषाविद रहे होंगे; किंतु मेरे लिए आप एक सजीव शास्त्र थे जिसका एक-एक अध्याय मुझे अभिप्रेरित करता था, ऊर्जस्वित करता था।

आप तो चले गए लेकिन "काल के कपाल पर" लिखा आपका "नया गीत" अमिट है और संसृति के एक-एक "परमाणु" पर गुंजायमान है। राजनैतिक संकीर्णता से इतर उस विराट सत्ता में आप अचल हैं। आप अटल हैं!

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी bharat ratna ex prime minister of india Atal bihari bajpayee
मैं अटल हूँ, मैं सत्य हूँ, मैं सबके दिलों में रहूँगा



भारतीय राजनीति के अजातशत्रु, हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर, भारतरत्न स्व0 अटल बिहारी वाजपेयी को विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए उनकी कुछ कविताएँ-


अटल जी की कुछ कविताएँ


गीत नया गाता हूं

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर,

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात,

प्राची में अरुणिम की रेख देख पता हूं।

गीत नया गाता हूं।।

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,

हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं।

गीत नया गाता हूं।।






आओ मन की गांठे खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,

घास-फूस का घर हांडे पर

गोबर सी लीपे आंगन में

तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर

मां के मुंह से रामायण के

दोहे-चौपाई रस घोले

आओ मन की गांठे खोलें।

बाबा की बैठक में बिछी चटाई

बाहर रखे खड़ाऊं

मिलने वाले के मन में असमंजस

जाऊं या ना जाऊं

माथे तिलक नाक पर ऐनक

पोथी खुली स्वयं से बोलें

आओ मन की गांठे खोलें।

सरस्वती की देख साधना

लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा

मिट्टी ने माथे का चंदन

बनने का संकल्प न छोड़ा

नए वर्ष की अगवानी में

टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें

आओ मन की गांठे खोलें।





आओ फिर से दिया जलाएं

भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाईं से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें

बुझी हुई बाती सुलगाएं

आओ फिर से दिया जलाएं।

हम पड़ाव को समझें मंजिल

लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

वर्तमान के मोहजाल में

आने वाला कल न भुलाएं

आओ फिर से दिया जलाएं।

आहूति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज्र बनाने

नव दधीचि हड्डियां गलाएं

आओ फिर से दिया जलाएं।





बाधाएं आती हैं आएं,

घिरें प्रलय की घोर घटाएं,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,

निज हाथों में हंसते-हंसते,

आग लगाकर जलना होगा

कदम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

  

मौत से ठन गई!



ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई!

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