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क्या हमारे बच्चे नहीं पढ़ पाएँगे हिंदी के अंक ?

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हिंदी के मानकीकरण के अनेक अदूरदर्शी प्रयासों ने आज हिंदी के अंको की स्थिति यह कर दी है कि सामान्य शिक्षार्थी तो क्या हिंदी के शिक्षक भी देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी की संख्याओं को पढ़ने में अचकचा जाते हैं। एकरूपता के चक्कर में या थोड़े से आलस्य के कारण अथवा कदाचित किसी कुचक्र में फँसकर हम अपनी जड़ों से कैसे कटते जा रहे हैं, शायद हमें कभी इस पर विचार करने की फ़ुरसत नहीं मिली? आज के २० साल बाद जब हमारे बच्चे किसी पुरानी पुस्तक में लिखी हिंदी की गिनतियाँ समझ पाने में असमर्थ होंगे तो आखिर हम किसको दोष देंगे? रोमन अंकों को अंतर्राष्ट्रीय अंक कहकर क्या हमने यह मान लिया है कि हिंदी के अंक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हो पाने की योग्यता ही नहीं रखते? और इसलिए क्या हम देवनागरी के अंकों को तिलांजलि दे दें? ज़रा इन प्रश्नों पर विचार करें। हमारे नीति-नियंताओं ने आजादी के बाद से अब तक हिंदी को दयनीय दशा में पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय देश के जनजन की आवाज बनकर गूँजने वाली हिंदी आज सत्तर साल बीत जाने के बाद भी संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं ...